वहाँ महल में जश्न
यहाँ
भूखी कुटिया में
दिदिया के दो हाथ, सूपड़ा
फटक रहे हैं।
अन्न जुटाया कुछ
दिदिया ने
रंग-रंग के उसमें
दाने।
शीत फाँकता चूल्हा
कल से
ताक रहा है गात
तपाने।
यहाँ खुला मैला जल-पोखर
वहाँ महल के
स्वच्छ ताल में, अंग लचीले
मटक रहे हैं।
भूसी खाकर भूखी
गैया
दूध सवाया देगी
मैया।
पा लेगी वो उन
महलों से
पय के बदले चंद रुपैया।
दे देते हैं मुफ्त
छाछ
जो दानवीर खुद
दही बिलो, नवनीत नित्य-प्रति
गटक रहे हैं।
दिदिया अब तक जान न
पाई
इनमें-उनमें क्यों
यह खाई
इसने तो रस बेच शेष
पर
अपनी सारी उम्र
बिताई।
नित्य रात में
ओढ़-बिछा वे
सपने सोती
सदियों से जो उस
खूँटी पर
लटक रहे हैं।
-कल्पना रामानी
1 comment:
सुंदर कविता.
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