सावन बरसा, गाँव हमारे
सुन लो क्या-क्या
रंग
दिखाए।
रस्सी पर थे वस्त्र
ओट में
घिरे अचानक
श्याम-घन घने।
संग हवा जब जल भर
लाई
कूदे भू पर लगे
लोटने।
अहा, नज़ारा क्या आँगन का!
तैर-तैर जब खूब
नहाए।
गलियों का भी सुन
लो फंडा
मौसम था मनभावन
ठंडा।
भीगे बालक, सिहरे भागे
छोड़ खेलना
गिल्ली-डंडा।
मन-भर मिट्टी पहन, घरों में
जूते चित्र बनाते
आए।
सखियाँ गई हुई थीं
पनघट
नैनों कजरा, गालों पर लट।
भीगी चुनरी, वापस भागीं
रीती गगरी ले, घर सरपट।
बाढ़ खुशी की देख
गाँव में
बादल मन ही मन
मुस्काए।
-कल्पना रामानी
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