रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

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कल्पना रामानी

Friday 10 July 2015

बाँस की कुर्सी


बालकनी के कोने मैंने
जब से रखी बाँस की कुर्सी

धूप बैठ इसपर खुश होती
बरखा अपना मुखड़ा धोती
शीत शॉल धरकर विराजती
रैन बिछाकर तारे सोती

हर मौसम ने बारी-बारी
छककर चखी, बाँस की कुर्सी

जब यह बाँस लचीला होगा
इसको श्रम ने छीला होगा
अंग-अंग में प्राण पिरोकर  
रंग दे दिया पीला होगा

एक नज़र में मुझे भा गई
जिस दिन लखी, बाँस की कुर्सी 

नित्य चाय पर मुझे बुलाती
गोद बिठा सब्जी कटवाती  
घर भर को बहलाता सोफा
यह मुझसे ही लाड़ लड़ाती

सुप्रभातशुभ संध्या! कहती
मेरी सखी, बाँस की कुर्सी 

-कल्पना रामानी  

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--कल्पना रामानी

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