रचना चोरों की शामत

मेरे बारे में

मेरे बारे में
कल्पना रामानी

Wednesday 2 April 2014

खुशबू के पल भीने से


रंग चले निज गेह, सिखाकर
मत घबराना जीने से।
जंग छेड़नी है देहों को
सूरज, धूप, पसीने से।
 
शीत विदा हो गई पलटकर।
लू लपटें हँस रहीं झपटकर।
वनचर कैद हुए खोहों में
पाखी बैठे नीड़ सिमटकर।
 
सुबह शाम जन लिपट रहे हैं
तरण ताल के सीने से।
 
तले भुने पकवान दंग हैं।
शायद इनसे लोग तंग हैं।
देख रहे हैं टुकुर-टुकुर वे
फल, सलाद, रस के प्रसंग हैं।
 
मात मिली भारी वस्त्रों को
गात सज रहे झीने से।
 
गोद प्रकृति की हर मन भाई।
दुपहर एसी कूलर लाई। 
बतियाती है रात देर तक
सुबह गीत गाती पुरवाई।
 
बाँट रहे गुल बाग-बाग में
खुशबू के पल भीने से।

-कल्पना रामानी

No comments:

पुनः पधारिए


आप अपना अमूल्य समय देकर मेरे ब्लॉग पर आए यह मेरे लिए हर्षकारक है। मेरी रचना पसंद आने पर अगर आप दो शब्द टिप्पणी स्वरूप लिखेंगे तो अपने सद मित्रों को मन से जुड़ा हुआ महसूस करूँगी और आपकी उपस्थिति का आभास हमेशा मुझे ऊर्जावान बनाए रखेगा।

धन्यवाद सहित

--कल्पना रामानी

Followers